Gairsain: Capital Ka Sapna Ya Siyasi Jumla?
24 साल हो गए उत्तराखंड बने हुए। पहाड़ों की गोद में बसे इस राज्य को जब उत्तर प्रदेश से अलग किया गया था, तब एक सपना भी साथ जुड़ा था—गैरसैंण को राजधानी बनाने का सपना। ये सिर्फ राजधानी तय करने का सवाल नहीं था, बल्कि एक पहचान, एक समानता, और एक न्यायपूर्ण विकास की उम्मीद थी। लेकिन दशकों बीत जाने के बावजूद ये सपना अब भी अधूरा है।
आज जब हाईकोर्ट तक यह कह रहा है कि "सब तैयार है, बस अटैची लेकर जाना है", तब सवाल उठता है—अगर सब तैयार है, तो निर्णय क्यों नहीं लिया गया? क्या गैरसैंण की राजधानी सिर्फ एक सियासी जुमला बनकर रह गई है?
गैरसैंण: इतिहास और भूगोल से जुड़ी मांग
गैरसैंण न तो केवल एक गांव है, न ही सिर्फ एक स्थल। यह उत्तराखंड के भौगोलिक केंद्र पर बसा हुआ एक ऐसा स्थान है जो कुमाऊं और गढ़वाल के बीच एक सांस्कृतिक सेतु का काम करता है।
राज्य आंदोलन के दौरान हजारों लोगों ने जान दी। अधिकांश आंदोलनकारी पहाड़ से थे। उन्होंने ये माना कि अगर राजधानी पहाड़ में बनेगी, तभी शहरी और ग्रामीण विकास में संतुलन होगा।
राज्य निर्माण के समय यह बात लगभग तय मानी गई थी कि राजधानी गैरसैंण होगी। लेकिन पहले अंतरिम राजधानी देहरादून बनी, फिर अस्थायी का ठप्पा लगाकर उसे स्थायी की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा।
राजनीति और टालमटोल की रणनीति
गैरसैंण को लेकर सभी राजनीतिक दलों ने वादे किए। कांग्रेस ने भी किया, बीजेपी ने भी। लेकिन जब सत्ता में आए तो ये मुद्दा या तो फाइलों में दबा दिया गया या केवल मौसमी चर्चा बनकर रह गया।
2020 में त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने गैरसैंण को "ग्रीष्मकालीन राजधानी" घोषित जरूर किया, लेकिन न तो वहां शासन की नियमित उपस्थिति बनी, न ही वहां की आधारभूत संरचना को पूरी तरह सक्षम किया गया।
राजनीतिक पार्टियों ने इस मुद्दे को केवल चुनावी भावनात्मक हथियार की तरह इस्तेमाल किया। चुनाव आए तो गैरसैंण याद आया, चुनाव गए तो गैरसैंण फिर से भूला दिया गया।
गैरसैंण और क्षेत्रीय अस्मिता (Regional Identity)
गैरसैंण सिर्फ राजधानी नहीं, ये पहाड़ों की अस्मिता का प्रतीक है। जब राजधानी पहाड़ में नहीं होती, तो नीतियां मैदानों की जरूरतों के अनुसार बनती हैं।
- स्वास्थ्य, शिक्षा, और सड़क सुविधाएं मैदानों में तो पहुंचती हैं, लेकिन दूरदराज के गांव आज भी अस्पताल और स्कूल के लिए तरसते हैं।
- पहाड़ों से माइग्रेशन (पलायन) का एक बड़ा कारण यही है कि वहां न तो रोजगार है, न शासन की उपस्थिति।
अगर राजधानी गैरसैंण होती, तो सरकार की भौतिक और मानसिक उपस्थिति पहाड़ों में होती। वहां सचिवालय होता, वहां योजना बनती, वहां धरातली हकीकत देखी जाती।
न्यायपालिका की टिप्पणी और जनता की निराशा
"गैरसैंण में तो सब कुछ तैयार है, बस अटैची लेकर जाना है।" – जस्टिस राकेश थपलियाल, उत्तराखंड हाईकोर्ट
यह बयान जितना सरल था, उतना ही चुभने वाला भी। क्या वाकई इतना आसान है राजधानी तय करना? अगर हाँ, तो फिर 24 साल से क्यों टालमटोल चल रही है?
जनता की नजर में यह बयान भी अब नेताओं के बयानों जैसा ही लगता है—संभावना है, मगर निर्णय नहीं। लोग पूछने लगे हैं:
- क्या कोर्ट भी अब सिर्फ लाइनें बोलने के लिए रह गया है?
- क्या अब आदेश की जगह सुझाव दिए जाएंगे?
- क्या उत्तराखंड को ठोस निर्णय के लिए आंदोलन या राष्ट्रपति शासन का सहारा लेना पड़ेगा?
क्या विकल्प हैं?
- स्पष्ट टाइमलाइन दी जाए कि कब तक गैरसैंण को पूर्ण राजधानी बनाया जाएगा।
- विधानसभा सत्रों को प्रतीकात्मक नहीं, नियमित और प्रभावी बनाया जाए।
- सरकार को गैरसैंण में पूर्ण सचिवालय और विभागीय ढांचा खड़ा करना होगा।
- जनता को चाहिए कि राजधानी को मुद्दा बना कर वोट मांगने वालों से जवाब मांगे।
निष्कर्ष: अब जुमले नहीं, निर्णय चाहिए
गैरसैंण की मांग कोई नया मुद्दा नहीं है। यह जनता का सपना है, संघर्ष है, और अब तक का सबसे बड़ा धोखा भी।
उत्तराखंड की आत्मा अभी भी पहाड़ों में बसती है, लेकिन राजधानी अभी भी मैदानों में बैठी है। और जब तक राजधानी पहाड़ों में नहीं जाएगी, तब तक शासन भी पहाड़ों की तकलीफ नहीं समझेगा।
गैरसैंण को राजधानी बनाना कोई उपकार नहीं होगा, यह केवल न्याय होगा।
अब जनता को सिर्फ सपने नहीं, निर्णय और एक्शन चाहिए।
✍️ Editorial Team | #Gairsain #Uttarakhand #CapitalDemand #PoliticalBetrayal