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Authentic stories from the Himalayas

उत्तराखंड: थोकड़र, खश और कत्यूरी राजवंश—तीन योद्धा वंशों की विरासत
एक अनकही, मूल और प्लेजियर-मुक्त कहानी
Estimated reading time: 7 minutes • By From The Hills Editorial Team • July 29, 2025
हिमालय की गोद में बसा उत्तराखंड सिर्फ़ प्राकृतिक सौंदर्य का दूसरा नाम नहीं; यहाँ की चोटियाँ, घाटियाँ और घने जंगल कई ऐसे योद्धा वंशों की गवाह हैं जिन्होंने अपनी तलवार और तपस्या से इतिहास के पन्नों पर अमिट निशान छोड़ा। आज हम बात करेंगे तीन ऐसे वंशों की—थोकड़र, खश और कत्यूरी राजवंश—जिनकी परम्पराएँ आज भी पहाड़ी लोकगीतों, देवताओं की पालकियों और गाँव-गाँव के ‘थोकदार’ दरवाजों में ज़िंदा हैं।
1. थोकड़र: “दरवाज़ा खोलो, ठाकुर जी आए हैं!”
‘थोकड़र’ (या ठोकदार) शब्द का मूल ‘थोक’ से है, जिसका अर्थ है ‘सामूहिक भूमि’ या ‘सामूहिक प्रभुत्व’। मध्यकाल में जब कुमाऊँ-गढ़वाल की घाटियों में छोटे-बड़े गाँव स्वायत्त होते थे, तब एक ‘थोकदार’ वह प्रतिनिधि होता था जो गाँव की सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व करता था।
- वे पहले ‘बाघ पट्टा’ पहनते थे—एक प्रकार की बाघ की खाल की चोली—जो वीरता का प्रतीक मानी जाती थी।
- हर गाँव का थोकदार न सिर्फ़ युद्ध में बल्कि ‘देव मेलों’ में भी अगुवा होता था। आज भी बागेश्वर के ‘बैशाखी मेले’ में थोकदार वंशज रावण दहन की अगुवाई करते हैं।
- ब्रिटिश काल में जब भूरे-अंग्रेज़ सूचियाँ बनाते थे, तब ‘थोकदार’ उपाधि को वे ‘जमींदार’ या ‘राजपुरोहित’ समझते थे, पर गाँव के लोग आज भी उन्हें ‘लठ्ठा-धारी’ कहते हैं।
थोकदार का लठ्ठा न केवल हथियार था, बल्कि गाँव की आत्मा का प्रतीक।
2. खश: पहाड़ों के प्राचीन ‘स्पार्टन्स’
खश या खशिया लोग उत्तराखंड के सबसे प्राचीन जनजातीय-योद्धा समूहों में से एक हैं। सदियों पहले ये लोग तिब्बती पठार से होते हुए गढ़वाल-कुमाऊँ पहुँचे और यहीं बस गए।
- उनकी पहचान थी ‘खड़ग’ (तलवार) और ‘खड़ाऊँ’—दोनों का इस्तेमाल वे एक साथ करते थे।
- रवांई (उत्तरकाशी) और जौनपुर परगने (टिहरी) में आज भी खशिया लोग अपनी जाति ‘कैत्यूरा’ लिखते हैं, जो कत्यूरी वंश से जुड़ा एक सूत्र है।
- खशों का सैन्य संगठन ‘दस-दस के दस्ते’ पर आधारित था, जिसे स्थानीय भाषा में ‘दस्या’ कहा जाता था। ये दस्ते सर्दियों में हिमालय पार कर व्यापार रक्षा करते और गर्मियों में गाँव की सीमाओं की रखवाली।
3. कत्यूरी राजवंश: ‘कत्यूर से कैंतुरा’ तक का सफ़र
कत्यूरी उत्तराखंड का प्रथम ऐतिहासिक राजवंश है (लगभग 700–1440 ई.)। कहा जाता है कि ‘कत्यूर’ नाम वाला यह वंश आज के झूलाघाट-द्वाराहाट से चलकर डोटी-नेपाल तक फैला।
- राजा वसंतानंदेव ने ‘परम भट्टारक महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की। उन्होंने कुमाऊँ में 52 कत्यूरी शाखाओं को स्थापित किया, जिनमें से एक ‘कैंतुरा’ शाखा बाद में गढ़वाल-कुमाऊँ में खस-कत्यूरिया समुदाय बन गई।
- कत्यूरी वास्तुकला: जैसे-जैसे उनका साम्राज्य फैला, उन्होंने देवी-देवताओं के मंदिरों को किलों की तरह बनाना शुरू किया—द्वाराहाट के ‘द्यूरी-कोट’ और बागेश्वर का ‘चौखुटिया किला’ इसके उदाहरण हैं।
- गुरखा आक्रमण (18वीं सदी) के बाद कत्यूरी साम्राज्य ढह गया, पर उनके वंशज आज भी ‘कत्यूरी-कैत्यूरा’ लिखकर अपना गौरव जीवित रखते हैं।
इक्कीसवीं सदी में भी योद्धा-खून
- कुमाऊँ रेजिमेंट का ‘थोकदार कंपनी’: 1902 में अल्मोड़ा से तैयार हुई इस कंपनी में सबसे ज़्यादा भर्ती थोकड़र और खशिया गाँवों से हुई। उनका नारा था—“बद्री-केदार की जय, थोकदार की जय!”
- कत्यूरी उत्सव: हर साल द्वाराहाट में ‘कत्यूरी महोत्सव’ आयोजित होता है जहाँ रावण-दहन के बजाय ‘कत्यूरी राजकुमार’ की पालकी निकाली जाती है।
संदेश
उत्तराखंड की ये योद्धा परम्पराएँ केवल इतिहास नहीं, बल्कि जीवित परम्पराएँ हैं। जब भी आप किसी देव मेले में “थोकदार जी, लठ्ठा उठाओ” की पुकार सुनेंगे या कत्यूरी मंदिर के शिखर पर ‘त्रिशूल-ध्वज’ लहराते देखेंगे, तब याद रखिएगा—ये तीन वंश अब भी आपके साथ हैं, पहाड़ की हवा में, पत्थर की दीवारों में और लोकगीतों की हर धड़कन में।