“हम कौन हैं?” — यह सवाल अब फेसबुक स्टेटस नहीं, सांस्कृतिक अस्तित्व का मुद्दा बन चुका है।

🍛 भोजन: अब झंगोरा 'इंस्टाग्रामेबल' है, लेकिन थाली से गायब है

झंगोरे की खीर (Jhangore ki Kheer) पहले गरीब की थाली में थी, आज deluxe restaurant menu में “Himalayan Porridge Pudding” बन चुकी है। Zomato पर “Bhatt Ki Churdkani” को “Tribal Protein Curry” के नाम से ₹400 में ऑर्डर किया जा सकता है।

दिक्कत यह नहीं कि झंगोरा महंगा हुआ। दिक्कत यह है कि हमारे घरों में वो अब बनता ही नहीं।

👗 भेषभूषा: पिछौड़ा अब सिर्फ शादी के एल्बम तक सीमित है

Instagram पर #Pichhora टैग में 10K+ पोस्ट हैं, लेकिन 80% styled photo-shoots हैं — real-life पहनावा नहीं। महिलाएं शादी में पिछौड़ा पहनती हैं, पर शहर में उसे “old-fashioned” कहती हैं।

🗣️ भाषा: जब Google Translate भी गढ़वाली नहीं समझ पाता…

गढ़वाली और कुमाऊंनी आज भी Google Translate में उपलब्ध नहीं। Gen-Z reels में “ठैरा” मीम बन चुका है। OTT पर पहाड़ी किरदार भी मुंबईया लहजे में बात करते हैं ताकि “audience connect कर सके” — पर क्या खुद से disconnect तो नहीं हो गए?

🔍 संस्कृति का नया सच: जब पहचान 'perform' की जाने लगी है

  • पहाड़ी व्यंजन = content idea
  • पारंपरिक पोशाक = theme-based event
  • लोक भाषा = reels का punchline

हम अपनी पहचान को जीने के बजाय, सिर्फ दिखा रहे हैं।

💭 समाधान: रील्स से रिवाइवल की ओर

  1. सप्ताह में एक दिन घर में पहाड़ी व्यंजन पकाएं।
  2. हर त्योहार पर पारंपरिक पोशाक पहनें — सिर्फ शादी तक सीमित न रखें।
  3. बच्चों से हर दिन कम से कम 5 वाक्य अपनी बोली में बोलें।
  4. अपने लोकगीतों को Spotify पर नहीं, घर के आँगन में गाएं।
झंगोरे की खीर सिर्फ स्टोरी पर मत डालिए, अपने बेटे को उसका स्वाद भी चखाइए। पिछौड़ा सिर्फ दुल्हन को न पहनाइए, माँ को भी पहनाइए। और "ठैरा" को जोक मत बनाइए, सम्मान बनाइए।