घी संक्रांति: उत्तराखंड की परंपरा, संस्कृति और महत्व
उत्तराखंड की संस्कृति और परंपराएँ हमेशा से अपनी अनोखी छाप छोड़ती आई हैं। इन्हीं परंपराओं में से एक है घी संक्रांति, जिसे ओलगिया भी कहा जाता है। यह पर्व भाद्रपद मास की संक्रांति तिथि को मनाया जाता है और गढ़वाल-कुमाऊँ दोनों क्षेत्रों में इसकी गहरी मान्यता है।
घी संक्रांति क्या है?
जैसा कि नाम से स्पष्ट है, इस पर्व में गाय का घी मुख्य भूमिका निभाता है। इसे फसल, पशुधन और पारिवारिक समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। इस दिन रोटी या चपाती में घी लगाकर खाना अनिवार्य माना जाता है।
परंपराएँ और रीति-रिवाज
- घी-चपाती प्रथा: हर परिवार में इस दिन रोटी/चपाती पर घी लगाकर खाया जाता है।
- ओलग/ओलगिया: इस दिन भांजा, भतीजा, दामाद और शिष्य अपने मामा, मौसी, फूफा और गुरु से उपहार (अनाज, वस्त्र, फल) प्राप्त करते हैं।
- स्थानीय फल: ककड़ी, नाशपाती, भुट्टा और पहाड़ी फल घी-चपाती के साथ खाए जाते हैं।
- गौ पूजा: गाय और पशुधन की पूजा कर आभार जताया जाता है।
सांस्कृतिक महत्व
यह पर्व केवल खाने-पीने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह स्नेह, रिश्तों और आदान-प्रदान का भी प्रतीक है। बरसात के मौसम की समाप्ति और नए कृषि चक्र की शुरुआत के बीच यह पर्व प्रकृति, परिवार और समाज को एक सूत्र में पिरोता है।
आधुनिक संदर्भ में घी संक्रांति
आज के समय में भले ही लोग शहरों में बस गए हों, लेकिन उत्तराखंड के प्रवासी परिवार भी इस दिन घी-रोटी खाना और ओलग देने की परंपरा निभाते हैं। यह पर्व अपनी जड़ों से जुड़ने और सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने का अवसर है।
निष्कर्ष
घी संक्रांति उत्तराखंड की एक अनूठी लोक परंपरा है जो हमें याद दिलाती है कि हमारी संस्कृति, रिश्ते और प्रकृति कितने गहरे आपस में जुड़े हुए हैं। यह पर्व केवल घी खाने का त्योहार नहीं, बल्कि यह हमारे जीवन में स्नेह, समृद्धि और एकता का प्रतीक है।