पहाड़ के भुलाए हुए हीरो: Freedom Fighters of Uttarakhand
शहीद लक्ष्मण सिंह, इन्द्र मणि बडोनी जैसे भूले-बिसरे नायकों की गाथा
“जब-जब पहाड़ों ने अपनी गूंज में आज़ादी की पुकार सुनी, वहाँ उठी आवाज़ें इतिहास के पन्नों में कहीं दब-सी गईं। आज हम उन्हीं गुमनाम नायकों की कहानी लिख रहे हैं, जिन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ खड़ी की पहाड़ों की पहली दीवार।”
पहाड़ों में बिखरे शौर्य के स्वर्णाक्षर
उत्तराखंड, जिसे कभी “देवभूमि” कहा जाता है, ने भारत की आज़ादी की लड़ाई में अपने वीर सपूतों को खून-पसीने से सींचा। परन्तु जब हम गाँधी, भगत सिंह या सुभाष चंद्र बोस की बात करते हैं, तो लक्ष्मण सिंह और इन्द्र मणि बडोनी जैसे नाम गुमनामी की गहराइयों में कहीं खो जाते हैं। यह लेख उन्हीं भुलाए हुए हीरोज़ को समर्पित है, जिनकी कहानी आज भी पहाड़ों की हवाओं में गूंजती है।
शहीद लक्ष्मण सिंह: गढ़वाल का वीर जो अंग्रेज़ों के खिलाफ बिगुल बजा गया
संघर्ष की शुरुआत: गाँव से गदर तक
लक्ष्मण सिंह का जन्म 1904 में चमोली ज़िले के फरकंडे तल्ली गाँव में हुआ था। गाँव में प्राथमिक शिक्षा के बाद वे गढ़वाल राइफल्स में भर्ती हुए, पर अंग्रेज़ों के खिलाफ भेदभाव और देशी सैनिकों के प्रति अन्याय ने उनके भीतर विद्रोह की चिंगारी भर दी।
1920 के दशक में वे गदर पार्टी से जुड़ गए और पेशावर कांड (1930) के दौरान वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की अगुवाई में अंग्रेज़ों के खिलाफ हथियार डालने का ऐतिहासिक कदम उठाया। जब गढ़वाली ने अंग्रेज़ अफ़सरों के आदेश पर क्रांतिकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया, तो लक्ष्मण सिंह उनके सबसे करीबी सहयोगियों में थे।
फाँसी की सज़ा और अमर बलिदान
1931 में लाहौर षड़यंत्र मामले में उन्हें गिरफ़्तार किया गया और फाँसी की सज़ा सुनाई गई। जेल में उनकी आख़िरी चिठ्ठी पर लिखा था:
“मैं मरता हूँ, पर मेरी आवाज़ पहाड़ों में गूंजती रहेगी।”
उनका बलिदान आज भी चमोली के गाँवों में ‘लक्ष्मण सिंह की दालान’ नामक स्थानों पर याद किया जाता है, जहाँ उनकी स्मृति में हर साल ‘वीरता दिवस’ मनाया जाता है।
इन्द्र मणि बडोनी: “पहाड़ों के गांधी” जिन्होंने राज्य की नींव रखी
ग्रामोत्थान से राज्य आंदोलन तक
1925 में टिहरी गढ़वाल के अखोड़ी गाँव में जन्मे इन्द्र मणि बडोनी ने मीरा बेन की प्रेरणा से समाजसेवा शुरू की। 1950 के दशक में उन्होंने ‘वन अधिनियम’ के खिलाफ आंदोलन चलाया, जहाँ उन्होंने पेड़ काटकर विकास कार्यों को हरी झंडी दिखाई।
105 दिनों की ऐतिहासिक पदयात्रा
1988 में उन्होंने तवाघाट से देहरादून तक 2000 किलोमीटर की पदयात्रा की, जिसमें 2000 से अधिक गाँवों को छुआ। यह यात्रा उत्तराखंड राज्य आंदोलन का मार्गदर्शक बन गई।
आमरण अनशन और अमरता
1994 में पौड़ी में 30 दिन का आमरण अनशन उनके नेतृत्व की पराकाष्ठा थी। जब उन्हें जबरन अस्पताल में भर्ती किया गया, तो बीबीसी ने लिखा:
“अगर आप जीवित गाँधी को देखना चाहते हैं, तो उत्तराखंड जाएँ।”
उनके बलिदान ने 2000 में उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की राह तैयार की।
अन्य गुमनाम नायक: जिन्हें भूला दिया गया
नाम | योगदान | भूमिका |
बद्रीदत्त पांडे | असहयोग आंदोलन का नेतृत्व | “गढ़वाल की गूल” के लेखक |
कालू सिंह मेहरा | दांडी मार्च में भागीदारी | पहाड़ों से नमक सत्याग्रह लाए |
बिशनी देवी | महिला सत्याग्रह की अगुवाई | “पहाड़ की झांसी की रानी” कही जाती |
पहाड़ों की गूंज: आज के संदर्भ में
आज जब उत्तराखंड ‘स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्मृति पार्क’ बना रहा है, तब हमें याद रखना होगा कि ये नायक केवल इतिहास नहीं, बल्कि जीती-जागती प्रेरणा हैं।
“जब तक पहाड़ों में लक्ष्मण सिंह की बलिदानी आवाज़ गूंजती रहेगी, तब तक इन्द्र मणि बडोनी का अहिंसक संघर्ष जीवित रहेगा।”
संदेश
इस आज़ादी दिवस पर, आइए हम इन भुलाए हुए हीरोज़ को याद करें—न सिर्फ़ सोशल मीडिया पर, बल्कि उनके गाँव जाकर, उनके परिवार से मिलकर, और उनकी कहानियों को स्कूलों तक पहुँचाकर।
क्योंकि आज़ादी की असली कीमत इन्होंने चुकाई थी, हम तो केवल किश्तों में इतिहास पढ़ रहे हैं।