गैरसैंण: डेढ़ दिन का रामराज्य और नेताओं की संक्रमित राजनीति
डेढ़ दिन में क्रांति!
वाह! गैरसैंण में मानसून सत्र कल शुरू हुआ और आज दोपहर तक ख़त्म हो गया।
सिर्फ डेढ़ दिन में हमारे माननीय विधायकों ने ऐसे निर्णय लिए कि अब शायद उत्तराखंड में रामराज्य उतरने ही वाला है। अब जनता निश्चिंत हो सकती है—पलायन रुक जाएगा, रोजगार बरसने लगेगा और पहाड़ों में विकास की नदियाँ बहने लगेंगी।
ऑपरेशन मंगल, विकास चाँद पर
असलियत यह है कि गैरसैंण सिर्फ symbolic बनकर रह गया है। सचिवालय अब भी देहरादून में, सत्ता हल्द्वानी में और पहाड़ केवल चुनावी नारों तक सीमित।
ये तो वही बात हो गई—ऑपरेशन मंगल ग्रह से चलाओ और विकास चाँद पर करवाने का सपना दिखाओ!
इच्छा नहीं, बहाने बहुत
25 साल हो गए। अगर राजनीतिक इच्छा शक्ति होती, तो गैरसैंण आज एक पूर्ण राजधानी होती। मगर यहाँ सिर्फ “सत्र करवा दो, फोटो खिंचवा दो, और मैदान लौट जाओ” वाली राजनीति चल रही है।
असल समस्या तकनीकी नहीं, बल्कि नेताओं की political will है—और वह ज़ीरो है।
संक्रमित पहाड़ी नेता
गैरसैंण में बैठने के लिए पहाड़ी आबो-हवा रगों में चाहिए। लेकिन हमारे नेता अब मैदान की ठंडी हवा और आरामदायक लाइफस्टाइल के इतने आदी हो चुके हैं कि वे चाहकर भी पहाड़ों में दो दिन नहीं टिक सकते।
ये वही संक्रमित पहाड़ी हैं जो मैदानों की झुग्गी-झोपड़ी में रह लेंगे, मगर गैरसैंण की ताज़ी हवा उन्हें काटने लगती है।
डेढ़ दिन का रामराज्य
जनता को बार-बार धोखे में रखा जाता है। हर सत्र, हर बहस और हर घोषणा में गैरसैंण को राजधानी कहा जाता है, लेकिन असल में यह सब डेढ़ दिन का रामराज्य है। दो दिन बैठो, जनता को सब ठीक है का भरोसा दो और फिर मैदान भाग जाओ।
जनता को अब सवाल पूछना होगा
- गैरसैंण से सचिवालय क्यों नहीं चलता?
- विभागीय मुख्यालय अब भी मैदानों में क्यों हैं?
- पहाड़ सिर्फ वोट और फोटो-शूट के लिए क्यों इस्तेमाल होते हैं?
निष्कर्ष: गैरसैंण का सच
गैरसैंण का मुद्दा भौगोलिक नहीं, राजनीतिक संक्रमण का है।
जब तक सचिवालय और शासन पूरी तरह गैरसैंण से नहीं चलेगा, तब तक पलायन, विकास और रोज़गार सिर्फ डेढ़ दिन की नौटंकी और रामराज्य के खोखले वादे बने रहेंगे।